एक समय की बात है एक गांव में एक पति-पत्नी रहते थे। उनकी एक पुत्री भी थी। वह दोनों अपनी पुत्री से बहुत प्यार करते थे, उनको अपनी पुत्री से इतना स्नेह था कि वह दोनों पति-पत्नी उसके स्नेह हमें मूर्ख हो चले थे। वह बच्ची अभी बहुत छोटी थी परंतु वह बहुत ही सुंदर दिखती थी। दोनों पति-पत्नी उसको दिन भर निहारते रहते थे और कहते थे अहा हमारी पुत्री कितनी सुंदर है। इस गांव में तो क्या दूर-दूर तक के गांव में भी हमारी पुत्री जैसी सुंदर बालिका ढूंढने पर भी नहीं मिलेगी उन्होंने अपनी पुत्री का नाम सुगंधा रखा था वह कहते थे हमारे पुत्री तो एक ‘अप्सरा’है।
वह कन्या सुगंधा जो बचपन से अपनी तारीफें सुनती रहती थी और बचपन से ही इस सब को अपने मन में सोचती रहती थी। धीरे-धीरे सुगंधा भी बड़ी होती गई और वह भी खुद को सुंदर समझने लगी, उसके मन में धीरे-धीरे समय के साथ-साथ यह बात घर कर गई कि वह बहुत रूपवती है और उसके जैसी कन्या इस दुनिया में कोई भी नहीं है। वर्ष पर वर्ष बीत गए और सुगंधा भी बड़ी होती गई और वह युवती होने पर बहुत ही सुंदर हो गई थी। उसको जवान होते देखकर माता-पिता को उसके ब्याह की चिंता सताने लगी वे सोचने लगे हमारी रूप गुण यौवन संपन्न सुगंधा के लिए ऐसा ही पति होना चाहिए।
सुगंधा के लिए कई रिश्ते आए परंतु उसके माता-पिता को कोई भी रिश्ता पसंद नहीं आया। दूर-दूर के शहरों और गांवों से भी सुगंधा से शादी करने के लिए कई जवान आए लेकिन या तो सुगंधा के माता-पिता को ही वे मंजूर ना आए या सुगंधा ने ही उनमे दोष निकाला। यदि उसके माता-पिता किसी जवान को अपना दामाद बनाने पर सहमत भी हो जाते तो सुगंधा राजी ना होती। सुगंधा के नाराजगी दिखाने का एक अनोखा ही तरीका था कि वह अपने कमरे के द्वार और खिड़कियां बंद करके बैठ जाती थी और जब उसके माता-पिता उसके यह करने का कारण पूछते तो वह कहती मुझे यह वर पसंद नहीं है।
दिन बीतते जा रहे थे
सुगंधा अब एक पूरी बालिग स्त्री हो चली थी परंतु, उसका विवाह कहीं भी तय नहीं हो पा रहा था। उसके माता-पिता इस कारण बहुत ही दुखी रहने लगे थे। उन्हें और भी दुख तब होता था जब वह अपने आस-पड़ोस की तथा सुगंधा से कम सुंदर युवतियों को विवाह करते घर बसाते और सुख का जीवन बिताते देखते थे। वह मन ही मन में सोचते हाय हमारी सुगंधा का भी विवाह हुआ होता तो हम भी सुख की सांस लेते होते।
एक दिन की बात है जब सुगंधा की मां रसोई घर में खाना बनाने में लगी हुई थी और सुगंधा भी उसी के पास बैठी हुई थी। सुगंधा बैठे-बैठे कुछ सोच रही थी फिर अचानक से सुगंधा बोल पड़ी ‘माताजी’ ‘प्यारी माताजी’ मैंने अब विवाह करने का निश्चय कर लिया है। उसकी मां ने जब यह सुना तो मानो उसे अपने कानों पर भरोसा ना हुआ। उसने उसके सिर पर प्रेम से हाथ फिरते हुए कहा ‘प्यारी बिटिया’ ‘अच्छी बिटिया’ कितनी अच्छी हो तुम! मुझे तुमसे यही आशा थी। कितने खुश होंगे तुम्हारे पिता यह बात सुनकर और कितनी जल्दी वह तुम्हारे योग्य वर ढूंढ निकालेंगे। परंतु सुगंधा ने अपनी मां की बात काटते हुए गंभीर भाव से कहा- जानती हो मां मैंने किस से विवाह करने का निश्चय किया है? तो उसकी मां कहती है- “नहीं तो बिटिया”
सुगंधा कहती है मैं अपने से सुंदर वर को वरूंगी और वह है सूर्य। सूर्य के चमकते हुए मुखड़े से मुझे प्रेम हो गया है। सुनहरे रथ पर चढ़ा मुझे वह कितना प्यारा लगता है। जब वह मेरी और ताकता है तो मैं इतनी प्रसन्न हो उठती हूं, कि मेरा मुंह दमदमा उठता है। सुनकर उसकी मां पर मानो बिजली सी गिरी और वह घबराकर बोली पुत्री क्या कह रही है? तू पागल तो नहीं हो गई कहां सूर्य और कहां तू।
सुनते ही सुगंधा ने कहा तो आप मेरी सत्य बात को पागलपन समझती हैं?
उसकी मां ने एक लंबी आह भरकर कहा बेटी यह पागलपन नहीं तो और क्या है क्या सूर्य भगवान ने भी आज तक किसी साधारण स्त्री से विवाह किया है?
सुगंधा कहती तो क्या मैं एक साधारण स्त्री हूं! यह नहीं हो सकता। आप लोग ही तो बचपन से कहते आ रहे हैं कि मैं अन्य स्त्रियों से भिन्न हूं, और है भी सत्य। मैं और स्त्रियों से अधिक रूपवती हूं।”
मां ने उत्तर दिया “परंतु बेटी, तुम इतनी नहीं हो कि सूर्यदेव तुम्हें वर लें। हम तो इस लोक के हैं और वह उस लोक के।”
इस पर सुगंधा ने और भी जोरदार शब्दों में कहा, “मेरा निश्चय अटल है।मैं विवाह करूंगी तो सूर्य से नहीं तो किसी से भी नहीं।”
उसकी मां को अब और भी चिंता खाने लगी।
शाम को वह अपने पति के साथ बहुत समय तक अपनी पुत्री की मूर्खता की बातों पर विचार करती रही। वे कहने लगे, “हाय-हाय! हम लोगों ने स्वयं अपने पैरों पर कुल्हाड़ी चलाई है। हमने ही इसको इतना घमंडी बनाया है। अब हम करें भी तो क्या करें? पास-पड़ोसवालों से भी अपने दुःख की बात कैसे कहें? उन्हें तो हमने कभी आदर की दृष्टि से देखा भी नहीं।”इस पर उसकी मां ने कहा, “पतिदेव, बेटी बहुत बिगड़ गई है। अब उसे किसी ऐसे आदमी को सौंप दिया जाए जो बड़ा क्रूर हो और इसको अपने अधीन कर पाए और इसका दिमाग ठिकाने लगा पाए।”
यह बात तय करके वे सो गए। सुबह हुई तो क्या देखा कि सुगंधा का कहीं भी नहीं है। वह न जाने किस समय और कहां चली गई थी। अब वे उसको तलाश करने लगे परंतु उसका पता कहीं न चला।
इधर सुगंधा सूर्यदेव को वरने के लिए रात के अंधेरे में ही चल पड़ी थी। वह कई दिनों तक घने जंगलों में आगे ही बढ़ती गई। वह आगे-आगे जाती थी और सूर्यदेव की ओर एकटक देखती जाती थी। अंत में एक समय ऐसा आया कि सूर्य उसकी आंखों से बिलकुल ओझल हो गया। उसके चारों ओर अंधेरा-ही-अंधेरा छा गया। उसे कुछ न सूझा पर उसे मालूम न था कि वह सूर्यदेव की ओर जाने के पथ पर सीधी जा रही है, इसीलिए वह और भी आगे जाने लगी। चलती-चलती वह न मालूम कहां पहुंच गई । एक दिन सूर्य ने उसे फिर अपना मुखड़ा दिखाया और उस पर मुस्कराया। वह इतनी तेज़ी से मुस्कराया कि सुगंधा से उसका मुस्कराना सहन न हो सका। जितना वह सूर्य के समीप पहुंचती गई उतनी ही तेज़ गर्मी उसको लगने लगी, यहां तक कि वह अब उसकी ओर देख भी न सकती थी। अब उसकी आंखें दुखने लगीं। वह अब देख भी न सकी परंतु आगे-ही-आगे बढ़ती गई। उसने अपने मन में सोचा, ‘मैं कदापि घर न लौटूँगी, चाहे कुछ भी हो।
मैं सूर्य से विवाह करके ही दम लूंगी।’
वह मन में यह सोच रही थी और सूर्य और भी तेज़ प्रकाश से उस पर चमकता रहा। जो सुगंधा को उसका मुस्कराना लगता था अब उससे सहन न हो सका। वह भय से कांप उठी, तो भी अपने घमंड ने उसे यह आज्ञा न दी कि वह भली लड़की की तरह घर लौट जाए। उसका रास्ता खो गया और वह एक अत्यंत घने जंगल में भटकने लगी। जंगल इतना घना था कि दिन में भी रात का-सा अंधेरा था और हाथ को हाथ नहीं सूझता था।
उधर सुगंधा का मुंह भी झुलस गया था और वह उसे अधिकाधिक पीड़ा देने लगा। उसकी आंखें मानो किसी मशीन के पेचों की तरह कसी जाने लगीं। वह अगर कुछ बोलती तो अपनी बात भी उसके कानों को उसकी एक अजीब-सी बोली प्रतीत होने लगती। यह देख वह भयभीत हो गई और चिल्ला उठी, “हाय-हाय! मुझे यह क्या हो गया? मैं भागकर घर जाऊंगी और मां से पूछूंगी कि मेरा यह क्या हाल हो गया है?”
वह एकदम उल्टे पांव भाग खड़ी हुई | वह वायु जैसी तेज़ी से घर की ओर भागने लगी। वह भागती चली और भागती चली, यहां तक कि अपने घर पहुंच गई। परंतु सुगंधा अब सुंदरी न रही थी। उसके सारे शरीर पर झुर्रियां पड़ी हुई थीं, उसकी कमल-सी आंखें घट-घटकर छोटी हो चली थीं और वह बहुत कुरूप हो गई थी। उसे अब कोई न पहचान सकता था। उसे तो सूर्य ने अपनी तेज़ गर्मी से झुलस दिया था और वह बहुत भद्दी सी हो गई थी। उसका घमंड काफूर हो गया था। अब उसने एक ऐसे बूढ़े आदमी से विवाह किया जिसके सारे मुंह पर मांस लटक गया था और वह कब्र के समीप पहुंच चुका था। सुगंधा को अब सब बंदरिया कहने लगे पर वह चुपचाप सुनती रही। उनके जो संतान हुई वे तो पूरे बंदर थे।
कहानी का सिद्धांत: घमंड का अहंकार नष्ट करेगा।
किसी भी व्यक्ति के जीवन में घमंड का सामर्थ्य बहुत छोटा होता है। यह उसे अपने आप को बेहद महत्वपूर्ण और अन्यों से ऊंचा मानने की भ्रांति में डाल देता है। घमंड की वजह से व्यक्ति अहंकार में डूब जाता है और वह अपने गलती और कमियों को स्वीकारने से पीछे हट जाता है।
यह कहानी हमें सिखाती है कि हमें अपने स्वभाव में विनम्रता, सहजता, और नम्रता बनाए रखनी चाहिए। अपने काम और सामर्थ्य के प्रति विश्वास रखना ठीक है, लेकिन इसका उपयोग दूसरों को निचा दिखाने या उन्हें अनुचित रूप से समझने में नहीं होना चाहिए। हमें दूसरों के साथ आदर्श संबंध बनाने और मिलनसार व्यवहार करने की आवश्यकता होती है।
घमंड की जगह, हमें आपातकाल में नम्र और सहानुभूति से व्यवहार करना चाहिए। यह हमारी व्यक्तिगत उपलब्धियों को बढ़ाता है और हमें सच्ची सफलता की ओर ले जाता है। घमंड का नाश करके हम आपसी एकता, सम्मान, और सहयोग के मार्ग में अग्रसर होते हैं, जो समृद्धि, सम्पन्नता, और सद्भावना को प्रदान करता है।