||Emotional Hindi story || लखनऊ में एक दुकान पर लस्सी का ऑर्डर देकर हम सब दोस्त आराम से बैठकर एक दूसरे की खिंचाई और हंसी-मजाक में लगे ही थे कि एक लगभग 60-65 साल की बुजुर्ग मां पैसे मांगते हुए मेरे सामने हाथ फैलाकर खड़ी हो गई।उनकी कमर झुकी हुई थी, चेहरे की झुर्रियों में भूख तैर रही थी। नेत्र भीतर को धंसे हुए किन्तु सजल थे। उनको देखकर मन मे न जाने क्या आया कि मैने जेब मे सिक्के निकालने के लिए डाला हुआ हाथ वापस खींचते हुए उनसे पूछ लिया,अम्मा जी लस्सी पियोगी ? मेरी इस बात पर दादी कम अचंभित हुईं और मेरे मित्र अधिक। क्योंकि अगर मैं उनको पैसे देता तो बस 5 या 10 रुपए ही देता लेकिन लस्सी तो 30 रुपए की एक है। इसलिए लस्सी पिलाने से मेरे गरीब हो जाने की और उस बूढ़ी अम्मा के द्वारा मुझे ठग कर अमीर हो जाने की संभावना बहुत अधिक बढ़ गई थी। मां ने सकुचाते हुए हामी भरी और अपने पास जो मांग कर जमा किए हुए 10-5 रुपए थे वो अपने कांपते हाथों से मेरी ओर बढ़ाए। मुझे कुछ समझ नही आया तो मैने उनसे पूछा ये किस लिए? इनको मिलाकर मेरी लस्सी के पैसे चुका देना बाबूजी !भावुक तो मैं उनको देखकर ही हो गया था… रही बची कसर उनकी इस बात ने पूरी कर दी। एकाएक मेरी आंखें छलछला आईं और भरभराए हुए गले से मैने दुकान वाले से एक लस्सी बढ़ाने को कहा… उन्होने अपने पैसे वापस मुट्ठी मे बंद कर लिए और पास ही जमीन पर बैठ गई।अब मुझे अपनी लाचारी का अनुभव हुआ क्योंकि मैं वहां पर मौजूद दुकानदार, अपने दोस्तों और कई अन्य ग्राहकों की वजह से उनको कुर्सी पर बैठने के लिए नहीं कह सका।डर था कि कहीं कोई टोक ना देकहीं किसी को एक भीख मांगने वाली बूढ़ी महिला के उनके बराबर में बिठाए जाने पर आपत्ति न हो जाये…लेकिन वो कुर्सी जिसपर मैं बैठा था मुझे काट रही थीलस्सी कुल्लड़ों मे भरकर हम सब मित्रों और बूढ़ी दादी के हाथों मे आते ही मैं अपना कुल्लड़ पकड़कर दादी के पास ही जमीन पर बैठ गया क्योंकि ऐसा करने के लिए तो मैं स्वतंत्र थाइससे किसी को आपत्ति नही हो सकती थीहां! मेरे दोस्तों ने मुझे एक पल को घूरा… लेकिन वो कुछ कहते उससे पहले ही दुकान के मालिक ने आगे बढ़कर दादी को उठाकर कुर्सी पर बैठा दिया और मेरी ओर मुस्कुराते हुए हाथ जोड़कर कहा ऊपर बैठ जाइए साहब! मेरे यहां ग्राहक तो बहुत आते हैं किन्तु इंसान कभी कभार ही आते हैं। अब सबके हाथों मे लस्सी के कुल्लड़ और होठों पर सहज मुस्कुराहट थी, बस एक वो दादी ही थीं जिनकी आंखों मे तृप्ति के आंसूं …होंठों पर मलाई के कुछ अंश और दिल में सैकड़ों दुआएं थीं।
न जानें क्यों जब कभी हमें 10-20-50 रुपए किसी भूखे गरीब को देने या उसपर खर्च करने होते हैं तो वो हमें बहुत ज्यादा लगते हैं लेकिन सोचिए कि क्या वो चंद रुपए किसी के मन को तृप्त करने से अधिक कीमती हैं? दोस्तों…जब कभी अवसर मिले ऐसे काम करते रहें भले ही कोई अभी आपका साथ दे या ना दे , समर्थन करे ना करें… आप आगे बढ़िए सच मानिए इससे आपको जो आत्मिक सुख मिलेगा वह अमूल्य है ।